भारतीय लोकतंत्र (Bhartiye Loktantra) (Reader-2)

सम्पादन : हृदय कान्त दीवान | संजय लोढ़ा | अरुण चतुर्वेदी | मनोज राजगुरु (Hriday Kant Dewan, Sanjay Lodha, Arun Chaturvedi, Manoj Rajguru)

भारतीय लोकतंत्र (Bhartiye Loktantra) (Reader-2)

सम्पादन : हृदय कान्त दीवान | संजय लोढ़ा | अरुण चतुर्वेदी | मनोज राजगुरु (Hriday Kant Dewan, Sanjay Lodha, Arun Chaturvedi, Manoj Rajguru)

-20%1100
MRP: ₹1375
  • ISBN 9788131614433
  • Publication Year 2025
  • Pages 270
  • Binding Hardback
  • Sale Territory World

About the Book

आज के संदर्भ में लोकतंत्र की धारणा एक अहम विमर्श के मुद्दे के रूप में उभरी है। हर तरफ यह प्रतीत होता है मानो लोकतंत्र की धारणा को लेकर न सिर्फ विचार स्तर पर वरन् व्यवहार स्तर पर भी अलग-अलग धाराओं में विश्लेषण हो रहा है। 
यह संकलन ‘भारतीय लोकतंत्र’ की भारतीय संदर्भ में व्याख्या करता है और कई महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का विवेचन करता है। लोकतंत्र मात्र एक ढ़ांचा अथवा व्यवस्था न हो कर अंतःक्रिया व परस्पर व्यवहार का ब्लूप्रिंट है। राजनैतिक लोकतंत्र लाना, जिसमें व्यक्ति को स्वतंत्रता से मताधिकार करना संभव हो, एक मुश्किल पड़ाव हो सकता है किन्तु वह सामाजिक लोकतंत्र, जो कि संविधान का सार है, हासिल करने से बहुत कम है। भारत के संविधान में राज्य की सत्ता को व्यापक भूमिका दी गई है। राज्य की कल्याणकारी भूमिका के साथ-साथ सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण अधिकार व जिम्मेदारियां हैं। इसे संतुलित करने हेतु व्यवस्थाओं और व्यक्ति के संवैधानिक अधिकार तथा स्थितियों की रक्षा के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका और कानून के शासन की स्थापना की गई है। इसे बनाए रखने में न्यायपालिका, राजनीतिक दल, चुनावी व्यवस्था और सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र के ढ़ांचे की अहम भूमिका है। यह संकलन इन सभी पहलूओें के प्रभाव का वर्तमान सन्दर्भों में आकलन करता है। कुल मिलाकर पिछले तीन दशकों से यह देखा जा सकता है कि जहां कल्याणकारी आर्थिक क्षेत्र में राज्य की भूमिका लगातार कम होती प्रतीत होती है, जिसका प्रभाव शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर दिखता है, किन्तु कई अन्य महत्त्वपूर्ण मसलों में समाज से जुड़े प्रशासनिक मामलों में नियमन के झंड़े तले राज्य की दखलअंदाजी के कारण यह भूमिका बढ़ती जा रही है। एक महत्वपूर्ण अहसास यह उभरता है कि हालांकि भारत ने लोकतंत्र का एक अति विकसित रूप अपनाया और उसकी ओर बढ़ने का प्रयास भी किया है किन्तु हाल के चुनावी व अन्य घटनाक्रमों से लगता है कि हम विश्व के अन्य देशों की तरह लोकतंत्र को अपनाए जाने की यात्रा में फिसल कर कुछ पीछे की और भी आने लगे हैं।


Contents

प्रथम खण्ड भारतीय लोकतंत्र की सैद्धान्तिक व्याख्या

1 अभिव्यक्ति की आजादी के संकट-रामचन्द्र गुहा

2 लोकतंत्र में आर्थिक प्रगति बनाम राजनीतिक प्रक्रिया? - अभय कुमार दुबे

3 विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता - नरेष दाधीच

4 राज्य का सुरक्षा-विमर्ष बनाम लोकतांत्रिक अधिकार: अदालती फैसलों के आईने में राजद्रोह विरोधी कानून - अनुष्का सिंह

5 भारतीय लोकतांत्रिक चुनौती - आषुतोष वार्ष्णेय

6 किन खतरों से घिरा है हमारा लोकतंत्र - अषोक भारती

7 भारतीय प्रजातंत्र प्रणाली: बिगड़ा चरित्र, जड़ता के प्रष्न - नरेष भार्गव

8 लोकतंत्र: एक मुखौटा? - सुषील यति

9 राह ‘प्रजातंत्र’ से जनतंत्र की -प्रज्ञा जोषी


द्वितीय खण्ड  लोकतंत्र और न्यायपालिका: एक गहरा अन्तर्सम्बन्ध

10 भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका - हृदय कान्त दीवान

11 न्यायमूलक समाज के लिए न्याय व्यवस्था - शरद बेहर

12 भारतीय कानूनी तंत्र में सुधार: स्थिर से गतिषील कानूनी तंत्र की ओर - सुधीर कृष्णास्वामी एवं अमूल्या पुरुषोत्तम

13 धर्म संकट में न्यायपालिका -अरविन्द जैन

14 न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक - अजीत प्रकाष शाह

15 सही पारदर्षिता के लिए - प्रषान्त भूषण

16 बसेरे पर भ्रष्टाचार का नियंत्रण - अरुण कुमार

17 न्यायालयों का कार्य निष्पादन एवं राजनीति -वी. के. कृष्ण अय्यर

18 संविधान संषोधन के सपने: अदालत, अँधेरा और आधी दुनिया - अरविन्द जैन

19 भारतीय लोकतंत्र: बढ़ते कदम - संजय लोढ़ा

तृतीय खण्ड लोकतंत्र, भारतीय चुनाव और राजनीतिक दल:  समझ के विभिन्न आयाम

20 लोकतंत्र, चुनाव और राजनीतिक गत्यात्मकता की सैद्धान्तिकी-कमल नयन चौबे

21 चुनाव परिणाम और आम आदमी-हृदय कान्त दीवान

22 एक नए अस्थायी गठबन्धन का अस्थायी उदय-सुहास पलशीकर

23 भारत में दलीय व्यवस्था- प्रकाष सारंगी

24 वर्चस्व से समाभिरूपता तक: भारतीय राज्यों में दलीय व्यवस्था व चुनावी राजनीति (1952-2002)-सुहास पलशीकर एवं योगेन्द्र यादव

25 क्या चाहती हैं, वोटर औरतें?-राजेष्वरी देषपाण्डे

26 चुनाव, एग्जिट पोल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया-राहुल वर्मा

चतुर्थ खण्ड  भारतीय लोकतंत्र के कुछ सरोकार

27 राजनीति की आधारभूत मान्यताओं में बदलाव -योगेन्द्र यादव

28 राजनीतिक व्यवस्था में संक्रमण: 2004 के आम चुनावों के पष्चात् भारत -महेष रंगराजन

29 जातिवाद एवं भारतीय राजनीति की व्याख्या - इयान डंकन

30 लोकतंत्र, धर्म और भारतीय सन्दर्भ-अरुण चतुर्वेदी

31 हसरतों की राजनीति पर हावी जाति और धर्म:उत्तरप्रदेश का चुनाव-पूर्व परिदृष्य-बद्री नारायण

32 नेहरू और अम्बेडकर: भारतीय आधुनिकता के दो चेहरे-आलोक टंडन


About the Author / Editor

हृदय कान्त दीवान शिक्षा व समाज के अंतर्संबंध के क्षेत्र मे कार्यरत हैं। वे एकलव्य फाउंडेशन (मध्य प्रदेश) के संस्थापक सदस्य थे और विद्या भवन सोसायटी (राजस्थान) और अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय (बेंगलूरु) के साथ काम कर चुके हैं। वे शिक्षा प्रणाली में सामग्री और कार्यक्रमों के विकास और शिक्षा में अनुसंधान में सक्रिय हैं।
संजय लोढ़ा, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से राजनीति विज्ञान के सेवानिवृत्त आचार्य। वर्तमान में जयपुर स्थित विकास अध्ययन संस्थान में भारतीय सामाजिक विज्ञान शोध परिषद् के वरिष्ठ फैलो के रूप में संबद्ध।
अरुण चतुर्वेदी, वरिष्ठ राजनीति शास्त्री एवं मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से राजनीति विज्ञान के सेवानिवृत्त आचार्य।
मनोज राजगुरु, विद्या भवन रूरल इंस्टीट्यूट, उदयपुर में राजनीति विज्ञान के सह आचार्य।


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