About the Book
प्रस्तुत पुस्तक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से वैश्वीकरण के विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण है। पुस्तक वैश्वीकरण की अवधारणात्मक, सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक मीमांसा प्रस्तुत करती है, साथ ही वैश्विक समाजशास्त्रीय व्याख्याओं के आधार पर उसका मूल्यांकन भी करती है। जिन पक्षों को इस पुस्तक ने छुआ है, वे आज वैश्वीकरण प्रक्रिया के प्रमुख वाहक माने जाते हैं। पुस्तक अपनी ही सीमा में उस धुंध को साफ करने का प्रयास है जो हिन्दी भाषी प्रक्रियाओं का परीक्षण है, जो चर्चा के विषय हैं, और जिन पर बहस जारी है।
मूलतः पुस्तक के दो भाग हैं - पहला अवधारणात्मक तथा सैधान्तिक विश्लेषण से संबंधित है और दूसरा समाज के उन पक्षों के विश्लेषण से संबंधित है जो वैश्वीकरण के संपर्क में आए हैं। अंत में बहस के उस पक्ष की चर्चा भी है जो वैश्वीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक सोच के साथ जुड़ी हुई है। स्वयं पाठक सोचें कि वैश्वीकरण को वह किस अंदाज में देखते हैं?
Contents
1. वैश्वीकरण: अवधारणात्मक पृष्ठभूमि
2. वैश्विक समाज के सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य: वैश्वीकरण तथा स्थानीयकरण
3. वैश्वीकरण के विविध् पक्ष - I
4. वैश्वीकरण के विविध् पक्ष - II
5. वैश्वीकरण के विविध् पक्ष - III
6. वैश्वीकरण: उपलब्धि एक संकट
About the Author / Editor
नरेश भार्गव सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से समाजशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। इससे पूर्व आपने पं. जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय, उदयपुर और मध्यप्रदेश शासन आदिम जाति कल्याण विभाग में काम किया है। आपने दो मौलिक पुस्तकों का लेखन और गेल ओमवेट की पुस्तक ‘दलित और प्रजातान्त्रिक क्रान्ति’ का हिन्दी अनुवाद भी किया है। कई समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में आपके समसामयिक हिन्दी तथा अंग्रेजी लेख प्रकाशित हुए हैं। आप राजस्थान समाजशास्त्र परिषद के अध्यक्ष रह चुके हैं तथा वर्तमान में राजस्थान जर्नल आॅफ सोश्योलाॅजी के संपादक हैं। आप जनबोध सामाजिक एवं सांस्कृतिक शोध संस्थान के अध्यक्ष भी हैं।